कबिरा तू हारा भला जितन दे संसार,
जिते को जम मिले हारा हरी के द्वार ॥
अजीब बात है. सब दुनिया जितने की बात करती है. और संत हारने की बात करते है. हर कोई जितना चाहता है. यह युग काॅम्पिटिशन का है तो हर कोई जितना चाहेगा ही. किसी को मैच जितना है. किसी को किसी को दोस्त के साथ लगायी हुयी बैट जितना है. कोई जंग जितना चाहता है. हारना कोई नही चाहता. अच्छा... एक जमाने मे तो पत्नीया भी जित कर लायी जाती थी. लडकी पसंद आयी उठा के ले चले. विरोध हुआ तो युद्ध करके जित लिया. राजा महाराजा तो चाहते थे की अपनी बेटियों को कोई जित के ले जाए. इसलिए तो स्वयंवर रखते थे. स्वयंवर मे समान शक्तीवाले जादा इच्छुक पहुंच जाते तो युद्ध होता था. भीष्म ने अंबा, अंबिका और अंबालिका को ऐसे ही युद्ध मे जित के लाया था. अपने भाईयो के लिए. अर्जुनने द्रोपदी को स्वयंवर मे जिता था. आज ऐसे स्वयंवर नही होते. अच्छी बात हे. नही सारी लडकिया ताकदवरही जित के ले जाते. हायब्रीड खानेवाले कमजोर शादी के बिना कुंवारे रह जाते.
बात स्वयंवरों की चल रही है तो एक बात बता दू. अपने पुराणों मे जितने भी भयंकर युद्ध हुवे है, उनका मूल कारण ये स्वयंवर है. सीताजी के स्वयंवर मे हारने से अपमानित होने से रावण ने सीताजी का अपहरण किया और रामायण हुआ. भीष्म ने अंबा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण किया करणे से आगे महाभारत हुआ.
प्रेम का दुसरा नाम है भक्ती. दोन्हो अकृत्रिम है. नैसर्गिक है. पाणी को प्रयोगशाला मे नही बनाया जाता. वह नैसर्गिक है. वैसे ही भक्ती और भाव सिखाया नही जाता. सिखाओगे तो पोपट पैदा होंगे भक्त नही. पोपट उतनीही बात करेगा जितनी सिखाई गयी हो. पोपट कभी विद्वान या पंडीत नही हो सकता. विद्वान बनना मुश्किल है पोपट बनना आसान है. आजूबाजू जरा नजर दौडाओ ढेर सारे पोपट मिल जायेंगे. लोग उन्हे विद्वान कहलाते है. हमारी विद्वत्ता की व्याख्याही गलत है. जो बहुत सारी किताबे पढ लेता है, उसे विद्वान कहा जाता है. पंडीत माना जाता है. किताबे तो खूब पढली मगर अनुभूती का? अनुभूती बगैर कोई विद्वान नही बन सकता. तुकोबा ज्ञानेश्वरी को श्रेष्ठ ग्रंथ कहते है. मगर ज्ञानेश्वरी को सिर्फ पढने को नही कहते. अनुभूत करने को कहते है.
तुका म्हणे ग्रंथ श्रेष्ठ ज्ञानदेवी,
एक तरी ओवी अनुभवावी ॥
क्या कहते है? एक तरी ओवी अनुभवावी. अनुभूती के बिना पोथी पढने का कोई मतलब नही है. पोथीयाँ पढ पढ के विद्वान बनने का दावा करनेवालोंको कबीरजीने खुब फटकारा है. कबीरजी कहते है-
पोथी पढी पढी जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई अक्षर प्रेम का, पढे सो पंडीत होय ॥
मुआ का मतलब है मर गया. पुरानी हिंदी है. कबीरजी कहते है, पोथी पढते पढते हजारो लाखो मर गये. मगर कोई पंडीत नही बना. जिसने प्रेम का ढाई अक्षर पढ लिया वही पंडीत है. जो प्रेम जान है वही विद्वान है. पंडीत है. प्रेम कोई किताब पढकर सिखने बात नही है. वह अनुभूती की बात है. मा अपने बच्चे से प्यार करती है. वह सिर्फ अनुभव किया जा सकता है. सिखा नही जा सकता. बच्चे से प्यार कैसे किया जाए इसके लिए दुनिया मे कोई ट्रेनिंग उपलब्ध नही है. फिर भी मा जैसा प्यार दुनिया मे कोई नही करता. प्यार झरने जैसा है. झरने का पाणी जमीन के अंदर से आता है. बाहर से पाणी डाल के कारंजा बनाया जा सकता है, झरना नही. झरना तो मूलस्रोत है. तुकोबाराय कहते है
तुका म्हणे झरा, आहे मूळचाचि खरा ॥
मैने शुरू मे कहा था, प्रेम का ही दुसरा नाम है भक्ती. प्रेम समझ लोगे तो भक्ती समझ जायेगी. तो पहला बडा सवाल. प्रेम क्या है? क्या है प्रेम? प्रेम है समर्पण. समर्पण मतलब हारना. खुद को हरा देना. देखो, तुम अगर हारना सिखो तो जीत जाओगे. अजीब बात है. लोग हमेशा जितने की बात करते है. और मै आप को हारने को कह रहा हूँ.... पागल है क्या? यही प्रतिक्रिया आयेगी आपकी. सच को समझो. जित को नही हारने को प्रेम कहते है. माँ क्या अपने बच्चे से जितना चाहती है. उससे आगे निकल जाना चाहती है. और माँ के सामने तुम क्या जितने की बात करोगे? नही ना? इश्वर तो सब माँओं की माँ है. तभी तो विठू माऊली कहते है. जो विश्व की माउली है इश्वर के सामने क्या जितने की बात करोगे? समर्पन कर दो. हार जाओ. अपने को हरा दो. कबीरजी ने क्या खूब कहा है-
कबीरा तू हारा भला जितन दे संसार,
जिते को जम मिले हारा हरी के द्वार ॥
इस विवेचन से कुछ सिद्धांत हमारे हाथ आये है. उन्हे याद करके आगे चलते है.
1. प्रेम का ही दुसरा नाम है भक्ती.
2. प्रेम का मतलब है समर्पण.
3. समर्पण जितना नही हारना सिखाता है.
और जिसके पास भगवान है जित उसी की है. गीता का आखरी श्लोक याद रखना. संजय ने कहा है, जहा योगेश्वर कृष्ण और धनुर्धर अर्जुन है वही विजय है. याद रखना भगवान को पाओगे तो तुम धनुर्धर अपने आप हो जाओगे. अर्जुन धनुर्धर है क्योंकी उसके साथ भगवान है.
जिते को जम मिले हारा हरी के द्वार ॥
अजीब बात है. सब दुनिया जितने की बात करती है. और संत हारने की बात करते है. हर कोई जितना चाहता है. यह युग काॅम्पिटिशन का है तो हर कोई जितना चाहेगा ही. किसी को मैच जितना है. किसी को किसी को दोस्त के साथ लगायी हुयी बैट जितना है. कोई जंग जितना चाहता है. हारना कोई नही चाहता. अच्छा... एक जमाने मे तो पत्नीया भी जित कर लायी जाती थी. लडकी पसंद आयी उठा के ले चले. विरोध हुआ तो युद्ध करके जित लिया. राजा महाराजा तो चाहते थे की अपनी बेटियों को कोई जित के ले जाए. इसलिए तो स्वयंवर रखते थे. स्वयंवर मे समान शक्तीवाले जादा इच्छुक पहुंच जाते तो युद्ध होता था. भीष्म ने अंबा, अंबिका और अंबालिका को ऐसे ही युद्ध मे जित के लाया था. अपने भाईयो के लिए. अर्जुनने द्रोपदी को स्वयंवर मे जिता था. आज ऐसे स्वयंवर नही होते. अच्छी बात हे. नही सारी लडकिया ताकदवरही जित के ले जाते. हायब्रीड खानेवाले कमजोर शादी के बिना कुंवारे रह जाते.
बात स्वयंवरों की चल रही है तो एक बात बता दू. अपने पुराणों मे जितने भी भयंकर युद्ध हुवे है, उनका मूल कारण ये स्वयंवर है. सीताजी के स्वयंवर मे हारने से अपमानित होने से रावण ने सीताजी का अपहरण किया और रामायण हुआ. भीष्म ने अंबा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण किया करणे से आगे महाभारत हुआ.
प्रेम का दुसरा नाम है भक्ती. दोन्हो अकृत्रिम है. नैसर्गिक है. पाणी को प्रयोगशाला मे नही बनाया जाता. वह नैसर्गिक है. वैसे ही भक्ती और भाव सिखाया नही जाता. सिखाओगे तो पोपट पैदा होंगे भक्त नही. पोपट उतनीही बात करेगा जितनी सिखाई गयी हो. पोपट कभी विद्वान या पंडीत नही हो सकता. विद्वान बनना मुश्किल है पोपट बनना आसान है. आजूबाजू जरा नजर दौडाओ ढेर सारे पोपट मिल जायेंगे. लोग उन्हे विद्वान कहलाते है. हमारी विद्वत्ता की व्याख्याही गलत है. जो बहुत सारी किताबे पढ लेता है, उसे विद्वान कहा जाता है. पंडीत माना जाता है. किताबे तो खूब पढली मगर अनुभूती का? अनुभूती बगैर कोई विद्वान नही बन सकता. तुकोबा ज्ञानेश्वरी को श्रेष्ठ ग्रंथ कहते है. मगर ज्ञानेश्वरी को सिर्फ पढने को नही कहते. अनुभूत करने को कहते है.
तुका म्हणे ग्रंथ श्रेष्ठ ज्ञानदेवी,
एक तरी ओवी अनुभवावी ॥
क्या कहते है? एक तरी ओवी अनुभवावी. अनुभूती के बिना पोथी पढने का कोई मतलब नही है. पोथीयाँ पढ पढ के विद्वान बनने का दावा करनेवालोंको कबीरजीने खुब फटकारा है. कबीरजी कहते है-
पोथी पढी पढी जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई अक्षर प्रेम का, पढे सो पंडीत होय ॥
मुआ का मतलब है मर गया. पुरानी हिंदी है. कबीरजी कहते है, पोथी पढते पढते हजारो लाखो मर गये. मगर कोई पंडीत नही बना. जिसने प्रेम का ढाई अक्षर पढ लिया वही पंडीत है. जो प्रेम जान है वही विद्वान है. पंडीत है. प्रेम कोई किताब पढकर सिखने बात नही है. वह अनुभूती की बात है. मा अपने बच्चे से प्यार करती है. वह सिर्फ अनुभव किया जा सकता है. सिखा नही जा सकता. बच्चे से प्यार कैसे किया जाए इसके लिए दुनिया मे कोई ट्रेनिंग उपलब्ध नही है. फिर भी मा जैसा प्यार दुनिया मे कोई नही करता. प्यार झरने जैसा है. झरने का पाणी जमीन के अंदर से आता है. बाहर से पाणी डाल के कारंजा बनाया जा सकता है, झरना नही. झरना तो मूलस्रोत है. तुकोबाराय कहते है
तुका म्हणे झरा, आहे मूळचाचि खरा ॥
मैने शुरू मे कहा था, प्रेम का ही दुसरा नाम है भक्ती. प्रेम समझ लोगे तो भक्ती समझ जायेगी. तो पहला बडा सवाल. प्रेम क्या है? क्या है प्रेम? प्रेम है समर्पण. समर्पण मतलब हारना. खुद को हरा देना. देखो, तुम अगर हारना सिखो तो जीत जाओगे. अजीब बात है. लोग हमेशा जितने की बात करते है. और मै आप को हारने को कह रहा हूँ.... पागल है क्या? यही प्रतिक्रिया आयेगी आपकी. सच को समझो. जित को नही हारने को प्रेम कहते है. माँ क्या अपने बच्चे से जितना चाहती है. उससे आगे निकल जाना चाहती है. और माँ के सामने तुम क्या जितने की बात करोगे? नही ना? इश्वर तो सब माँओं की माँ है. तभी तो विठू माऊली कहते है. जो विश्व की माउली है इश्वर के सामने क्या जितने की बात करोगे? समर्पन कर दो. हार जाओ. अपने को हरा दो. कबीरजी ने क्या खूब कहा है-
कबीरा तू हारा भला जितन दे संसार,
जिते को जम मिले हारा हरी के द्वार ॥
इस विवेचन से कुछ सिद्धांत हमारे हाथ आये है. उन्हे याद करके आगे चलते है.
1. प्रेम का ही दुसरा नाम है भक्ती.
2. प्रेम का मतलब है समर्पण.
3. समर्पण जितना नही हारना सिखाता है.
और जिसके पास भगवान है जित उसी की है. गीता का आखरी श्लोक याद रखना. संजय ने कहा है, जहा योगेश्वर कृष्ण और धनुर्धर अर्जुन है वही विजय है. याद रखना भगवान को पाओगे तो तुम धनुर्धर अपने आप हो जाओगे. अर्जुन धनुर्धर है क्योंकी उसके साथ भगवान है.
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