Saturday, 28 January 2017

सिद्ध सरहपा

चौरासी सिद्धों में जो प्रथम सिद्ध है, सरहपा उसके साथ हम अपनी यात्रा आज शुरू करते हैं। सरहपा के तीन नाम हैं, कोई सरह की तरह उन्हें याद करता है, कोई सरहपाद की तरह, कोई सरहपा की तरह। सरहपा पालवंशीय राजा धर्मपाल के समकालिक थे। धर्मपाल का समय ईस्वी. ७६८-८०९ माना जाता है। पूर्वी प्रदेश के किसी राज्ञी नगरी के निवासी थे।

सरहपा जन्म से ब्राह्मण थे, लेकिन जन्म से ही ब्राह्मण न रहे, अनुभव से भी ब्राह्मण हो गये। बड़े पंडित थे और यह विरल घटना है, कि पंडित और सिद्ध हो जाये।
सरहपा नालंदा के आचार्य थे। नालंदा में तो प्रवेश भी होना बहुत कठिन बात थी। नालंदा में विद्यार्थी जो प्रवेश होते थे, उनको महीनों द्वार पर पड़े रहना पड़ता था। प्रवेश-परीक्षा ही जब तक पूरी न होती तब तक द्वार के भीतर प्रवेश नहीं मिलता था। नालंदा अदभुत विश्वविद्यालय था! दस हजार विद्यार्थी थे वहां और हजारों आचार्य थे और एक-एक आचार्य अनूठा था। जो नालंदा का आचार्य हो जाता, उसके पांडित्य की तो पताका फहर जाती थी सारे देश में। मगर सरहपा ने पांडित्य छोड़ा, नालंदा छोड़ा--और उस समय का एक बहुत फक्कड़ों का संप्रदाय था,वज्रयान, उसमें सम्मिलित हो गये। यह जमात ऐसी ही थी जिनको बगावती कहो, क्रांतिकारी कहो--जो लात मार दें सारी प्रतिष्ठा पर, समाज के सम्मान पर। वज्रयान बड़े हिम्मतवर लोगों का समूह था। वज्रयान की मूल धारणा है कि जो है उसे ऐसे जाना जा सकता है, जैसे बिजली की कौंध होती है। एक क्षण में सब दिखाई पड़ जाता है। 

वज्रयान कहता है: वर्तमान में जीयो। इस क्षण के अतिरिक्त और कुछ भी सत्य नहीं है। और जिस दिन तुम इस क्षण में जीयोगे, सहज हो जाओगे। वज्रयान सहज योग है। वज्रयान क्यों नाम पड़ा: वज्र की भांति चोट करता है,और एक ही चोट में फैसला कर देता है।
सरहपा का स्वर क्रांति का स्वर है।

मन्तः मंते स्सन्ति ण होइ।
पड़िल भित्ति कि उट्ठिअ होइ।।1।।
मंत्र-जाप करने से शांति मिलने को नहीं।
दीवाल जो गिर चुकी, अब उठेगी नहीं। मंत्र दोहराने से यह गिरी दीवाल उठेगी नहीं।

तरुफल दरिसणे णउ अगघाइ।
वेज्ज देक्खि किं रोग पसाइ।।2।।
वृक्ष में लगा हुआ फल देखना, उसकी गंध लेना नहीं है, वैद्य को देखने मात्र से क्या रोग दूर हो जाता है?

जाव ण अप्पा जाणिज्जइ ताव ण सिस्स करेइ।
अंधं अंध कढ़ाव तिम वेण वि कूव पड़ेइ।।3।।
जब तक अपने-आप को नहीं जान लिया, तब तक किसी को शिष्य नहीं करना चाहिए। एक अंधा दूसरे अंधे को साथ ले चला और दोनों ही कुएं में गिर पड़ेंगे।
( इस वचन का जन्म सरहपा के साथ हुआ कि एक अंधा दूसरे अंधे को ले चला। अन्धं अन्ध कढ़ाव तिम वेण वि कूव पड़ेइ। फिर तो संतों में करीब-करीब सब ने यह दोहराया है। कबीर ने कहा है: अंधा अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत।)

बह्मणेहि म जाणन्त भेउ।
एवइ पढ़िअउ एच्चउ वेउ।।
मट्टी पाणी कुस लइ पढ़न्त।
घरहि वइसी अग्गि हुणन्त।।
कज्जे विरहइ हुअवह होमें।
अक्खि डहाविअ कडुएं धुम्में।।4।।
ब्राह्मण भेद नहीं जानते, वे चारों वेद पढ़ते हैं। वे हाथ में मिट्टी, कुश और जल लेकर मंत्र पढ़ते हैं और घर बैठे आग में घी डालते रहते हैं। होम करने से कुछ हुए ना हुए (मोक्ष मिले न मिले), कडुआ धुआं लगने से आंखों मे दाह अवश्य होता है।

जइ नग्गा विअ होइ मुत्ति ता सुणइ सिआलह।
लोम पारणें अत्थि सिद्धि ता जुवइ णिअम्बह।।5।।
यदि नग्न हो जाने से मुक्ति मिलती हो तो सियार, कुत्तों को पहले ही मुक्त हो जाना चाहिए। और केवल केश-लुंचन से मुक्ति मिलती हो तो नितंबों को मुक्ति मिलनी चाहिए, जिनका लोमोत्पाटन होता रहता है।

पिच्छी गहणे दिट्ठि मोक्ख ता मोरह चमरह।
उंछें भोअणें होइ जान ता करिह तुरंगह।।6।।
यदि पिच्छी ग्रहण करने से मुक्ति मिलती हो तो मोर को पहले ही मुक्त हो जाना चाहिए। ( मोर तो पिच्छियों के साथ ही पैदा होते हैं, पिच्छियों के साथ ही मरते हैं,) यदि उच्छ भोजन से मुक्ति मिलती हो तो हाथी-घोड़े मुक्ति के पहले अधिकारी हैं। (उच्छ भोजन का अर्थ होता है: दाने जो गिर जाते हैं खेतों में, उनको चुन-चुनकर जो भोजन करता है।)

आई ण अंत ण मज्झ णउ णउ भव णउ णि ब्वाण।
एहु सो परम महासुह णउ परणउ अप्पाण।।7।।
सहज शून्यावस्था का, समाधि का न तो आदि है न अंत है और न मध्य। न वहां जन्म है न निर्वाण। यह अलौकिक महासुख है। न इसमें पराये का भान रहता है, न अपना।

घोरान्धारें चंदमणि जिम उज्जोअ करेइ।
परम महासुह एक्कु खणे दुरि आसेस हरेइ।।8।।

जैसे घोर अंधकार में चंद्रमणि उजेला कर देती है,इसी तरह यह अपूर्व महासुख एक क्षण में ही संपूर्ण दुश्चरित्रों का नाश कर देता है।

जब्बे मण अत्थमण जाइ तणु तुट्टइ बंधण।
तब्बे समरस सहजे वज्जइ णउ सुछ ण बम्हण।।9।।
जिस क्षण यह मन अस्त या विलीन हो जाता है उस क्षण सारे बंधन टूट जाते हैं। उस समरस सहज अवस्था में कुछ भी भेद नहीं रहता--न शूद्र का न ब्राह्मण का।


चीअ थिर करि धरहु रे नाइ।
आन उपाये पार ण जाइ।
नौवा ही नौका टानअ गुणे।
मेलि मेलि सहजे जाउण आणे।।10।।
हे नाविक! चित्त को स्थिर कर सहज के किनारे अपनी नौका लिये चल। रस्सी से खींचता चल और कोई दूसरा उपाय नहीं है। हे नाविक, चित्त को थिर कर सहज के किनारे!

गुण के दो अर्थ होते हैं: या तो रस्सी या सदगुण। यहां रस्सी अर्थ नहीं हो सकता। सदगुण ही अर्थ होगा। रस्सी का कहां संबंध? यह सहज का किनारा, इस सहज के किनारे पर चित्त की, स्थिर चित्त की नाव, तो इसमें सदगुण की रस्सी।

मोक्ख कि लब्भइ ज्झाण पविट्ठो।
किन्तह दीवें किन्तह णिवेज्जं।
किन्तह किज्जइ मन्तह सेब्बं।
किन्तह तित्थ तपोवण जाइ।
मोक्ख कि लब्भइ पाणी न्हाइ।।11।।
भला ध्यान करने से कहीं मुक्ति होती? दीपक दिखाने और नेवैद्य चढ़ाने और मंत्र-पाठ करने से क्या मुक्ति मिल सकती है? तीर्थ-सेवन और तपोवन में जाने से और पानी में नहाने से कहीं मोक्ष लाभ होता है?

परऊ आर ण कीअऊ अत्थि ण दीअऊ दाण।
एहु संसारे कवण फलु वरूच्छडुहु अप्पाण।।12॥
यदि परोपकार नहीं किया और न दान दिया, तो इस संसार में आने का फल ही क्या? इससे तो अपने आपका उत्सर्ग कर देना ही अच्छा है।
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